पर्यावरण और मानव मूल्य

पर्यावरण और मानव मूल्य                    
                            

वैश्वीकरण के इस दौर में पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर चिंतन करना आवश्यक हो जाता हैं, वैदिक काल से भारतीय मनीषी पर्यावरण के 
संदर्भ में इस तथ्य को उजागर करते रहें है कि लोक रक्षा के लिए प्रकृति की रक्षा करो, रक्षायै प्रकृति पशु लोक । यही कारण है कि वेदों में आकाश,
 पाताल,नदी ,सागर, पर्वत, वनस्पति औषधि, पृथ्वी, नक्षत्र, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, नमनुष्य -देव सबके मंगल एवं संवृध्दि हेतु शांति की कामना की 
गई हैं । ऋग्वेद में ऋते का अर्थ निहितार्थ ब्रह्मांड से जीवित, अनुशक्ति और व्यवस्थित माना गया हैं । शुक्रनीति कहती हैं कि नैतिक संस्थान
 (ऋत) सभी का उमजीवक और लोकस्थिति का कारण । "सर्वोपजीवक लोकस्थितिकृन्यातिशास्त्र कम" । विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक का भी मन्तव्य है 
कि विश्व एक महानद यंत्र है, जो गणित सूक्ष्मयान्त्रिकियों का विलक्षण सुनियोजन हैं । व्यापक रूप में ऋत का अर्थ आदर्श परिस्थितियों की समक्षता
 से हैं जहाँ सभी घटक एक दूसरे का अकारक हैं । यही कारण है कि सम्पूर्ण अस्तित्व की रक्षा हेतु वैदिक काल से आज तक संतुलित पर्यावरण हमें
 चिंतन का प्रमुख प्रतिपाद्य रहा हैं । क्षिति, जल, पावक, गगन व समीर निर्मित यह पर्यावरण हमें प्रकृति से विरासत में मिला हैं ।इसका संरक्षण
 ही प्रकृति का संतुलन है और मानव के अस्तित्व की सुरक्षा भी । इसके साथ-साथ मानव मूल्य सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि का पालन आवश्यक 
ही "अहिंसा सबसे पवित्र धर्म हैं " जिसका पालन मन वचन एवं कर्म से सभी जीव के प्रति करना चाहिए ताकि परिस्थितिक का संतुलन बना रहे । 
यह मानव मूल्य एवं प्रकृति के समस्त घटकों के प्रति मानव का कर्तव्य बनता हैं ।

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