आज़ादी में लैंगिक असमानता

“परतंत्रता को नकरनेवाली भीमस्मृति और परतंत्रता का पालन करनेवाली मनुस्मृति एक ही सभागृह में और एक ही घर में साथ-साथ
राज करती हैं । यानी देश एक ही समय में दो स्मृतियों, दो सत्ताओं और दो जीवन-पद्धतियों एवं अहितकारी संस्कृति व् परम्परा में जीता
है।”
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की मान्यता है कि सामाजिक, सांस्कृतिक-परम्परा, आर्थिंक, राजनीतिक, शैक्षणिक इत्यादि की आज़ादी
में लैंगिक असमानता अनैतिक ही नहीं बल्कि जन विकास, देश विकास और विश्व विकास की राह में पत्थर है। बाबा साहेब के कृतित्व के
अनुशीलन से स्पष्ट है कि पूरे भारतीय समाज की स्त्रियाँ पितृसत्ता एवं परम्परा के बोझ नीचे कराह रही है, जबकि प्रारंभिक वैदिक काल
में स्त्रियों को मानव के रूप में उतना ही गैरव प्राप्त था जितना पुरूषों ।  एस• गिडवानी ने अपनी ‘रिटर्न ऑफ़ दि एरियन्स' में लिखे है कि
स्त्रियाँ यदि अग्रणी नहीं तो उन सभी महत्वपूर्णं कार्यक्षेत्रों में बराबर तो थी ही जिनमें नागरिक कार्य, राजनीति प्रशासन, काव्यशास्त्र,
दर्शन, कला आदि शामिल थे। स्त्रियाँ आरक्षण के आधार पर नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर सिंध और भारत के प्राचीन संसद एवं
परिषदों में महत्वपूर्णं एवं सम्मानयुक्त पदों पर आसीन होती थी। जेंडर का संबंध एक ओर पहचान से है तो दूसरी ओर सामाजिक
विकास की प्रक्रिया के तहत स्त्री-पुरूष की भूमिका से । स्त्री और पुरूष दोनों ही जैविक संरचना है यह सत्य है इन्हें बदला नहीं जा सकता।
लेकिन इनकी सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिंक व्  राजनैतिक भूमिका का निर्धारण जब किया जाता है तो इनके अपने स्वतंत्र अस्तित्व
पर प्रश्न अंकित हो जाता है, जिसका जवाब जेंडर देता है। जेंडर अस्मिता के पहचान का सबसे मूल घटना है जो हमें स्त्री व् पुरूष की
निर्धारित सीमा को परिभाषित करने और दुनिया को देखने के नज़रिए की नाटकीय भूमिका को बताता है। 1972 में ब्रिटिश समाजशास्त्री
व् नारीवादी लेखिका ऐना ओकले की पुस्तक ‘सेक्स जेंडर एण्ड सोशाइटी' इसी चिंतन का आगाज़ थी । ऐना के अनुसार जेंडर
सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना है जो स्त्रीत्व और पुरूषत्व के गुणों को गढ़ने के सामाजिक नियम व् क़ानून का निधारण करता है ।
कहते है कि शरीर एक ऑब्जेक्ट' है जिसे समाज, राजनीति व् सत्ता अपने अनुसार बनाती व् प्रशिक्षित करती है । जैसे पुरूष हमेशा से
समाज में अपने लिए अधिक ‘स्पेस' चाहता है वही स्त्री थोड़े से ही में ख़ुद को संतुष्ट पाती है क्योंकि उसे ऐसी सामाजिक निर्मिती दी
जाती है की वह बड़ा न सोच सके  प्रारंभिक दौर में चीन में लड़कियों के पैरों को बांधकर रखना तो ब्रिटिश काल में स्त्रियों का अपने
हाथो व् शरीर के हरेक भाग का ढक कर रखना समाजिक पहचान माना गया । वही भारतीय समाज में पुरूष को स्वतंत्र तथा स्त्रियों
का घर से बाहर क़दम रखने पर पाबंदी था/है । एक तरफ़ स्त्रियाँ देश के विभिन्न सर्वश्रेष्ठ पदों पर पदस्थ है वही दूसरी ओर सामाजिक,
धार्मिक आदि परंपरागत के कारण अपने साथ हो रही लैंगिक असमानता को झेल रही है या झेलने को मजबूर है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो
निष्कर्ष यही निकलता है कि स्त्रियों के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौंदर्य के मानकों इस निर्धारित की गई है । शरीर
का स्वरूप जितना प्रकृति से निर्धारित हुआ है उतना ही संस्कृति से भी । इस प्रकार स्त्रियों की मौज़ूदा अधीनता, जैविक असमानता से
नहीं पैदा होती है बल्कि यह ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की देन है । राजनैतिक सिद्धांतों के जटिल क्रंतिकारी रूसो
का मानना है स्त्री का निर्माण पुरूष को ख़ुश करने के लिए विशेष तौर पर हुआ है । पुरूष की विशेषता उसकी शक्ति है वह ख़ुशी देता है
क्योंकि वह शक्तिशाली है । मैं स्वीकार करता हूं कि यह प्रेम का नियम नया नहीं है, यह प्रकृति का नियम है, जो कि ख़ुद प्रेम से भी
पुराना है....यदि स्त्री का निर्माण पुरूष को ख़ुश करने के लिए तथा उसके नियंत्रण में रहने के लिए हुआ है तो उसे ख़ुद को पुरूष की
नज़रों में अधिक आनंदाई बनाने की कोशिश करनी चाहिए , न की उसे नाराज़ करने की । इस तरह रूसो स्त्री की चारित्रिक शुद्धता
और पतित्व की समझ को मजबूत करते है साथ ही परिवार में ‘पावर' अर्थात् सत्ता के चरित्र को दिखाते है जिसका ज़िक्र फूको ने भी
किया है। रूसो के अनुसार बच्चों के संरक्षण के लिए पत्नि के लैंगिक स्वतंत्र पर पूर्ण नियंत्रण की ज़रूरत है । यही बात प्राचीन भारतीय
हिन्दू क़ानून के निर्माता मनु कहते है, कि स्त्री को अपने बाल्य काल में पिता के अधीन शादी के बाद पति के अधीन और अपनी
वृद्धावस्था या विधवा होने के बाद अपने पुत्र के अधीन रहना चाहिए । इसी प्रकार दूसरें कौम में भी स्त्री को ही अधीन रहने की बात लिखी
गई है । जो सक्रिय है ।
कवयित्री महादेवी वर्मा लिखती है स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवी की मूर्तिं बनकर । प्राण प्रक्रिया में
सक्रिय प्रागैतिहास कालीन, वैदिक कालीन, ब्रह्मण कालीन समाजिक व्यवस्था से लेकर आज के समय तक जब भी हम स्त्री के परिप्रेक्ष्य
में बात करते है तो उसे पराधीन व् सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप व्याख्यात करते या देवी के बोझ तले ख़ुद के अस्तित्व को दम तोड़ते हुए देखते
है। इस तरह स्त्री अस्मिता का प्रश्न स्त्री होने के साथ ही कही गैण होता गया । अब सोचनीय विचारनीय है कि स्त्री होना क्या है?
जिसका ज़िक्र सिमोन भी करती है कि स्त्री पैदा होती नहीं बल्कि बनाई जाती है।
सामाजिक नियमों व् क्रियाओं के अनुरूप सामाजिक, आर्थिंक एवं सांस्कृतिक आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद करना और एक को
स्त्री और दूसरें को पुरूष रूप में सामाजिक मान्यता देना जैसी असमाजिक प्रक्रिया के पीछे जो सामाजिक कंडीशनिंग काम करती है
और जिसका प्रभाव संकोच, कमज़ोर, शांत, लज़्ज़ाशील व अन्य स्त्रियोचित गुणों में ढालने की प्रक्रिया से है जो प्राकृतिक नहीं मानवीय
प्रक्रिया के तहत होती है। इस सब बातों को लेकर कवि/ कवयित्री कभी ख़ुद लहूलुहान होता है, तो कभी इसे बाहर फेंककर अपने परिवेश
को घायल करता है। ख़ैर! जहां पहचान की बात है यह समस्या पुरूष के समक्ष नहीं आती उसका पहचान स्थायी होता है। स्त्री की तो
पहचान भी पुरूषों पर निर्भर है ,पहले पिता, फिर पति अगर दोनों ही न हो, तो यह विचारणीय प्रश्न है और बेहद कठीन भी लेकिन कुछ
स्त्रियों के पहचान से राष्ट्र का भी पहचान है फिर भी स्त्री लैंगिक असमानता को झेल रही है या झेलना पर रहा है । जेंडर के संदर्भ मे
समझा जाए तो स्त्री को सदा ही समाज ने कमज़ोर व् आश्रित माना या बनाया है जिसके लिए पहले पिता फिर पति के संरक्षण की
व्यवस्था की गई। जेंडर विमर्श में स्त्री का स्त्री होना ही आज सबसे बड़ी प्रश्न बनकर उभरता है। उसका अपना व्यक्तित्व कहां है?
जिस स्त्री की बात हमारा समाज करता है वह समाज निर्मित है जैसा की जर्मन ग्रीयर लिखती है जब प्रकृति ही स्त्री-पुरूष की लैंगिक
संरचना को उनको व्यक्तित्व का आधार नहीं बनाती तो समाज क्यों? फिर यदि स्त्री पितृसत्ता द्वारा निर्मित छवि को पहचान जाती
है और उससे अलग होकर जीने की चाह रखती है तो समाज उसे जीने नहीं देता । समाज की डायरी में स्वतंत्र और आत्मनिर्भर स्त्री के
लिए कोई निर्धारित मानक नहीं है । घर में बैठों दाल -चावल चुनो, सिलाई-कढ़ाई करो.. सुई में धागा ठीक से पीरों अरे तेरा हाथ क्यों
कांपता है, सीधी बैठों कूबड़ मत निकाले, इसी तरह शिक्षा में यह भेदभाव... मुझे अपनी बेटियों से कोई नौकरी नहीं करवानी है?
इन्हें कोई मेम नहीं बनाना है, घर में रहे घर का काम सीखे । यह तमाम उदाहरण और क्रियाए जेंडर निर्मित में सहायक होते है ।
जुडिथ बटलर ने इसे परर्फोंर्मिरी अर्थात् नाटकीयता कहा । जिसे समाज में अलग-अलग रूपों में स्त्री निभाती है । समाज का यह
विभाजन एक पक्षीय क्यों है? एक के पास सारे अधिकार और दूसरा खाली हाथ । आज़ादी में लैंगिक असमानता स्त्री के साथ पुरूष का
यह व्यवहार हर पल अहसास करता है कि वह कमज़ोर है उसे संरक्षण की आवश्यकता है । जिसका खाद हमारा परिवार  हमारे संस्कारो
में डालता चला जाता है । जो स्त्री को मानोवैज्ञानिक रूप से कमज़ोर मानने को मजबूर करता है । स्त्री की इस मानसिकता का निर्माण
परिवार और समाज करता है । मध्यवर्गीय परिवार में जेंडर की निर्मिती को देखा जा सकता है । यहां आज भी बेटी के पैदा होते ही
विवाह का बोझ परिवार के कंधों पर आ जाता है । स्त्री शिक्षा की अनिवार्यता पुरूष के हित को देख कर दी जाती है ।
निष्कर्ष :-
   अगर ग़ौर किया जाए तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरकार लैंगिक असमानता ख़त्म करने के लिए “बेटी बचाओ बेटी पढाओ” , “
सुकन्या समृद्धि” आदि जैसे अनुकरणीय योजना चला रही है, वही दूसरी ओर भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज़प्रथा इत्यादि जैसे
समाजिक कुरीतिया ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है । स्त्रियों की आज़ादी में लैंगिक असमानता भारतीय समाज की सदियों
पुरानी सांस्कृतिक एवं परम्परा घटना है भारतीय जनमानस में लैंगिक असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक सत्ता,
अशिक्षा और परम्परागत व्यवस्था है प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार “पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की
ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था है जिस में पुरूष स्त्री पर अपना प्रभुत्व जमाता है ।” आज़ादी में लैंगिक असमानता किसी कौम या धर्म,
‘जाति’ विशेष में ही सिर्फ नहीं है बल्कि पूरे भारत या विश्व में है ।
गांधी जी कहते है कि “स्त्री को अबला कहना अपमान जनक है ! यह पुरूषों का स्त्री के प्रति अन्याय है ।” वही 1927 में स्फुरना देवी
नाम की एक स्त्री ने “अबलाओ का इंसाफ” पर पुस्तक लिख डालती है । लेकिन कवि मैथिली शरण गुप्त ने यह लिखा है कि
“अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी आंचल में दूध और आंखों में पानी ।” यह केवल यशोधरा के विरहिणी रूप को ही चरितार्थं
नहीं करते है बल्कि तलाक़शुदा, विधवा व् बेघर स्त्रियों की हक़ीक़त भी दर्शाता है । आज के परिप्रेक्ष्य में गांधीजी, बाबा साहेब एवं
साहित्यकारों की बातों पर अमल तो दूर की बात है उसे पढ़ता और सुनता कौन है? ख़ैर! आज़ादी में लैंगिक असमानता यह दर्शाता है
कि इस 21वीं शताब्दी और ग्लोबल समय में भी पुरूष स्त्रियों की क्षमता पर शक करते है यह हमारे परिवार और सामाजिक व्यवस्था
की सोच और मान्यता का ही नतीज़ा है कि हम दूर्गा को शक्ति का प्रतिक और किताबों में एतिहासिक वीरांगनाओं के उदाहरण देने के
बावजूद आज भी उन्हें पुरूषों के मुकाबले लैंगिक असमानता का दंश सहन करना पर रहा है । ये कैसा विडम्बना है?
वकील कुमार यादव wakil kumar yadav
 

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